मोहब्बत और क़ुरबानी का एक अज़ीम रिश्ता होता है । पाक और सच्ची मोहब्बत बिना क़ुरबानी के मुकम्मल नहीं हो सकती । क़ुरबानी से मुराद सिर्फ जान की कुर्बानी ही नहीं बल्कि वो तमाम सारी चीज़ें हैं जो ये साबित करती हों कि मोहब्बत सच्ची और रूहानी है । सबसे अज़ीम कुर्बानी वो मानी जाती है जब आप अपने दिल के सबसे क़रीब, सबसे चहेते चीज़ को कुर्बान करें । कुर्बानी के अलग अलग दर्जात होते हैं । अजीज़ से अजीज़ चीजों को कुर्बान करना इसमें दर्जात को ऊँचा करता है । मोहब्बत की अपनी एक अलग ही कैफ़ियत होती है । मोहब्बत का सीधा ताल्लुक़ दिल से होता है बल्कि यूँ कहें कि दिल की पाकीज़गी से होता है । दिल में पाकीज़गी से मेरा मतलब है दिल में महबूब को पाने की शिद्दत से है । आप अपने महबूब को पाने के लिए जितने बेताब होंगे वही बेताबी ही आपमें कुर्बानी देने का जज़्बा पैदा करेगी । जब आप किसी से मोहब्बत करते हैं तो उसके लिए अपने क़िरदार में नरमी और सलाहियत पैदा करते हैं । हर वो अदा सीखते हैं/ करते हैं जिससे कि आपके महबूब को आपकी कोई भी एक अदा पसंद आ जाये और आप उसे पसंद आ जाएं । इश्क़ वो आग है जो महबूब के सिवा सबकुछ जला देती है । जला देने से मतलब आप इश्क़ में होते हुए अपने अंदर के तमाम ऐब और फ़ितने को कुर्बान कर देते हैं । इश्क़ दो तरह के होते हैं - इश्क़ मजाज़ी और इश्क़ हक़ीक़ी । इश्क़ मजाज़ी(इंसान से इश्क़) और इश्क़ हक़ीक़ी(ख़ुदा से इश्क़) । जब इश्क़ मजाज़ी हद से गुज़र जाता है तो वह खुद ब खुद इश्क़ हक़ीक़ी हो जाता है । इश्क़ एक खामोश इबादत है जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं दीदार-ए-महबूब है ।
जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है । इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना । क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है , उसकी ज़ात (वजूद) से हुआ है । उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है । वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा है, जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है । इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है । इश्क़ में रूहानियत होती है । इश्क़, बस इश्क़ होता है । किसी इंसान से हो या ख़ुदा से ।
मैंने तमाम ऐसे वाक़यात सुने या पढ़े हैं जिसमें इश्क़ हद से गुज़र गया है । जैसे की अल्लाह के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का इश्क़ जिसमें उन्होंने अपने बेटे तक को कुर्बान करने का फ़ैसला किया । हज़रत मूसा का अल्लाह से इश्क़ , सहाबा हज़रात का हुज़ूर सरवरे कायनात के लिए इश्क़ , अहलेबैत से हुज़ूर का इश्क़ और हुज़ूर से अहलेबैत का इश्क़ , उम्मत के लिए हुज़ूर और अहलेबैत के दिल मे इश्क़ ,हज़रत अवैस करनी का हज़रत मुहम्मद(स०अ०व) के लिए इश्क़ , तमाम औलिया इकराम , वली अल्लाह का अल्लाह से लिए इश्क़ जिसमें कुछ मुझे जो मालूमात है - हज़रत ख़्वाजा गरीब नवाज़ , हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी , हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का अल्लाह से इश्क़ , हज़रत अमीर खुसरो का हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से इश्क़ , हज़रत वारिस पाक का , हज़रत हज़रत साबिर पाक का , तमाम मुरीदों का अपने पीर ओ मुर्शिद के लिए इश्क़ ,हज़रत मौलाना रूम का हज़रत शमसुद्दीन से इश्क़ , लैला का कैस से , मीरा का कृष्ण से , सबरी का राम से , सम्राट अशोक का भगवान बुध्द से और दीगर वाक़यात गुज़रे हैं जो कि इश्क़ की उरूज़ पर पहुँचे । लेकिन उन तमाम इश्क़ों में मुझे सबसे बेहतर और सबसे आला इश्क़ करबला में नज़र आया या यूँ कहें कि वो इश्क़ जो अहलेबैत में था वो किसी में नही देखा गया । चूँकि अल्लाह और अपने नाना(हज़रत मुहम्मद स०अ०व की उम्मत) के इश्क़ के उस मक़ाम पर करबला था जब कि इश्क़ में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने आल व औलाद को कुरबान करने से पीछे नहीं हटे । 6 महीने के दुधमुंहे बच्चे तक को अल्लाह की रज़ामंदी के लिए शहीद होता देखा । सबकुछ हाथ मे होते हुए भी अपने इश्क़ में बंधे रहे और अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया । लेकिन इसके बदले उन्हें वो चीज़ मिली जो एक आशिक़ को चाहिए होती है ।
किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है
मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है
मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है
मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से
मुहब्बत रूठ जाती है
©मोनिश फ़रीद सिद्दीक़ी
What a great start!!!
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteGreat bhai ������
ReplyDelete👍👍👍👍👍
ReplyDeleteJabardast mere bhai
ReplyDeleteThanks
DeleteJabardast vimal bhai
ReplyDeleteHahahaha Thanks
DeleteMasha Allah
ReplyDeleteThanks bhai
DeleteBahut achcha bhai..
ReplyDeleteThank you dear
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